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मैं नीर भरी दुख की बदली - महादेवी वर्मा

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    वेदना और मर्म की कवयित्री महादेवी जी का छायावादी कवियों में प्रमुख स्थान है। छायावाद चतुष्टयी में प्रसाद , पन्त और निराला के बाद उन्हीं का नाम आता है। उनके काव्य में उस अज्ञात प्रियतम के लिए तड़प और उससे दूर होने की पीड़ा सर्वत्र दृष्टिगोचर होती है। यह दर्द , यह पीड़ा कवयित्री के मन में इस तरह रच-बस गई है कि उसे सम्पूर्ण सृष्टि इसी पीड़ा में ही सिमटी हुई लगती है। वह तड़पकर कह उठती है- "तुझको पीड़ा में ढूँढा , तुझमें ढूँढूँगी पीड़ा"। अनुभूतियों के इसी उत्कर्ष ने उन्हें रहस्यवाद की सर्वश्रेष्ठ कवयित्री बना दिया।           आइए पढ़ते हैं उनकी कविता- मैं नीर भरी दुःख की बदली मैं नीर भरी दुख की बदली! स्पंदन में चिर निस्पंद बसा , क्रंदन में आहत विश्व हँसा , नयनों में दीपक से जलते , पलकों में निर्झरिणी मचली! मेरा पग पग संगीत भरा , श्वासों में स्वप्न पराग झरा , नभ के नव रँग बुनते दुकूल , छाया में मलय बयार पली! मैं क्षितिज भृकुटि पर घिर धूमिल , चिंता का भार बनी अविरल , रज-कण पर जल-कण हो बरसी , नव जीवन-अंकुर बन निकली! पथ न मलिन करत

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की कविता-बाँधो न नाव इस ठाँव बंधु

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पढ़िए सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' की कविता : बाँधो न नाव इस ठाँव बंधु! बाँ धो न नाव इस ठाँव, बंधु!! पूछेगा सारा गाँव, बंधु!! यह घाट वही जिस पर हँसकर। वह कभी नहाती थी धँसकर। आँखें रह जाती थीं फँसकर। कँपते थे दोनों पाँव बंधु!! वह हँसी बहुत कुछ कहती थी। फिर भी अपने में रहती थी। सबकी सुनती थी, सहती थी। देती थी सबके दाँव, बंधु!! बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु!! पूछेगा सारा गाँव, बंधु!! सूर्यकांत त्रिपाठी निराला image courtesy: Google

मनुष्यता - राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त

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विचार लो कि मर्त्य हो न मृत्यु से डरो कभी, मरो परन्तु यों मरो कि याद जो करे सभी। हुई न यों सु-मृत्यु तो वृथा मरे, वृथा जिए, मरा नहीं वहीं कि जो जिया न आपके लिए। यही पशु-प्रवृत्ति है कि आप-आप ही चरे, वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे। उसी उदार की कथा सरस्वती बखानती, उसी उदार से धरा कृतार्थ भाव मानती। उसी उदार की सदा सजीव कीर्ति कूजती, तथा उसी उदार को समस्त सृष्टि पूजती। अखंड आत्म भाव जो असीम विश्व में भरे, वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।

लघुकथा - जवाहर चौधरी

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रोज अंधेरा होते ही एक उल्लू  मंदिर के गुंबद पर बैठ जाता। परेशान  लोग अपशगुन मान कर उसे उड़ाते लेकिन वह हठी, उड़ जाता पर कुछ देर बाद वापस लौट आता। एक बार देर रात उसे मौका मिल गया। जगदीश्वर  खुली हवा में टहल रहे थे, वह उनके सामने आया, --‘‘ मेरी समस्या का समाधान कीजिए जगदीश्वर।’’ ‘‘ पूछो लक्ष्मीवाहक, क्या बात है ?’’ ‘‘ जगदीश्वर, मेरे पुरखे आस्ट्रेलिया  के थे इसलिए वे आस्ट्रेलियन  कहलाए। मेरे कुछ बंधु जर्मनी में हैं वे जर्मन कहलाते हैं। अमेरिका में रहने वाले मेरे भाई अमेरिकन हैं। तो में हिन्दुस्तान में रहने वाला हिन्दू क्यों नहीं हूं !?’’ जगदीश्वर मुस्कराए, बोले -‘‘ तुम हिन्दुस्तान में हो इसलिए बेशक हिन्दुस्तानी हो। लेकिन हिन्दू नहीं उल्लू हो। .....  हिन्दुस्तानी उल्लू ।’’

मशहूर ग़ज़ल - किसी पे दिल अगर आ जाए तो क्या होता है

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किसी पे दिल अगर आ जाए तो क्या होता है!  वही होता है जो मंज़ूर-ए-ख़ुदा होता है!! कोई दिल पे अगर छा जाए तो क्या होता है! वही होता है जो मंज़ूर-ए-ख़ुदा होता है!! मुझको जुल्फ़ों के साए में सो जाने दो सनम, हो रहा है जो दिल मे हो जाने दो सनम, बात दिल की दिल में रह जाए, तो फ़िर क्या होता है! वही होता है जो मंज़ूर-ए-ख़ुदा होता है!! क्या मंज़ूर है ख़ुदा को बताओ तो ज़रा, जान जाओगी बाहों में आ जाओ तो ज़रा, कोई जो बाहों में आ जाए तो फ़िर क्या होता है! वही होता है जो मंज़ूर-ए-ख़ुदा होता है!! ग़ज़ल - 'गुलशन बावरा'

हिंदी की दुर्दशा - काका 'हाथरसी'

बटुकदत्त से कह रहे, लटुकदत्त आचार्य सुना? रूस में हो गई है हिंदी अनिवार्य है हिंदी अनिवार्य, राष्ट्रभाषा के चाचा- बनने वालों के मुँह पर क्या पड़ा तमाचा कहँ ‘ काका ‘ , जो ऐश कर रहे रजधानी में नहीं डूब सकते क्या चुल्लू भर पानी में पुत्र छदम्मीलाल से, बोले श्री मनहूस हिंदी पढ़नी होये तो, जाओ बेटे रूस जाओ बेटे रूस, भली आई आज़ादी इंग्लिश रानी हुई हिंद में, हिंदी बाँदी कहँ ‘ काका ‘ कविराय, ध्येय को भेजो लानत अवसरवादी बनो, स्वार्थ की करो वक़ालत

डॉ. राजेश कुमार मिश्र का आलेख - भाषा शिक्षण : चुनौतियाँ एवं संभावनाएँ

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व र्तमान समय में तेजी से प्रगति कर रहे शैक्षिक परिवेश में भाषा शिक्षण का क्षेत्र भी अत्यंत चुनौतियों से भर चुका है। आज के शैक्षिक वातावरण में अध्ययनरत विद्यार्थियों को परम्परागत तरीके की शिक्षण प्रणाली न केवल उनको नीरसता की ओर ले जाती है बल्कि निष्क्रियता की ओर भी ढकेल देती है। आज का विद्यार्थी २१वीं सदी का शिक्षार्थी है जो शैक्षिक विषयों को भी अपने लक्ष्य प्राप्त करने का साधन मानकर चलता है। अगर उसे लगता है कि कोई विषय उसके लक्ष्य साधन के लिए आवश्यक अंग नहीं है तो वह उसकी ओर या तो बहुत ही कम ध्यानाकृष्ट करता है या फिर अनिवार्य होने की दशा में अत्यंत नीरस भाव से एक सीमा तक उसका भार सहन करने की कोशिश में लग जाता है। ऐसी परिस्थितियों में इन विद्यार्थियों को परम्परागत शिक्षण पद्धति द्वारा शिक्षित करने का उद्देश्य शिक्षक के लिए अत्यंत कठिन एवं दुरूह हो जाता है।

हरिशंकर परसाई का व्यंग्य-अश्लील

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अश्लील   हरिशंकर परसाई    शहर में ऐसा शोर था कि अश्‍लील साहित्‍य का बहुत प्रचार हो रहा है। अखबारों में समाचार और नागरिकों के पत्र छपते कि सड़कों के किनारे खुलेआम अश्‍लील पुस्‍तकें बिक रही हैं। दस-बारह उत्‍साही समाज-सुधारक युवकों ने टोली बनाई और तय किया कि जहाँ भी मिलेगा हम ऐसे साहित्‍य को छीन लेंगे और उसकी सार्वजनिक होली जलाएँगे। उन्‍होंने एक दुकान पर छापा मारकर बीच-पच्‍चीस अश्‍लील पुस्‍तकें हाथों में कीं। हर  एक  के पास दो या तीन किताबें थीं। मुखिया ने कहा - आज तो देर हो गई। कल शाम को अखबार में सूचना देकर परसों किसी सार्वजनिक स्‍थान में इन्‍हें जलाएँगे। प्रचार करने से दूसरे लोगों पर भी असर पड़ेगा। कल शाम को सब मेरे घर पर मिलो। पुस्‍तकें में इकट्ठी अभी घर नहीं ले जा सकता। बीस-पच्‍चीस हैं। पिताजी और चाचाजी हैं। देख लेंगे तो आफत हो जाएगी। ये दो-तीन किताबें तुम लोग छिपाकर घर ले जाओ। कल शाम को ले आना।

कोई दीवाना कहता है-डॉ. कुमार विश्वास

आधुनिक हिंदी काव्य में लोकप्रिय कवि एवं राजनेता कुमार विश्वास का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं।आइए पढ़ते हैं उनका बहुचर्चित गीत "कोई दीवाना कहता है"- कोई दीवाना कहता है, कोई पागल समझता है मगर धरती की बेचैनी को, बस बादल समझता है मैं तुझसे दूर कैसा हूँ , तू मुझसे दूर कैसी है ये तेरा दिल समझता है, या मेरा दिल समझता है मोहब्बत एक एहसासों की, पावन सी कहानी है कभी कबीरा दीवाना था, कभी मीरा दीवानी है यहाँ सब लोग कहते है, मेरी आँखों में आंसू है जो तू समझे तो मोती है, जो ना समझे तो पानी है

हिंदी महीनों के नाम | Months name in Hindi

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क्या आपको कभी हिंदी महीनों के नाम और हिंदू पंचांग के विषय में जिज्ञासा हुई है?  यदि हाँ तो आइए जानते हैं हिन्दू पंचांग और हिंदी महीनों के बारे में कुछ रोचक तथ्य। सुविधा के लिए अंग्रेजी महीनों के नाम हिंदी में (months name in hindi) भी दिए गए हैं। भारतीय पंचांग के अनुसार नववर्ष का आरंभ अंग्रेजी माह (ईसवी सन्) मार्च-अप्रैल के बीच चैत्र नामक मास से होता है। इस महीने का नाम चैत्र इसलिए रखा गया क्योंकि इस माह की पूर्णिमा तिथि को चंद्रमा चित्रा नक्षत्र में होता है। चित्रा से हुआ चैत्र। इसी प्रकार विशाखा से वैशाख, ज्येष्ठा से ज्येष्ठ इत्यादि।  अर्थात् जिस माह की पूर्णमासी को चंद्रमा जिस नक्षत्र में होता है उस माह का नाम उसी नक्षत्र के आधार पर होता है। इस तरह कुल 12 हिंदी महीने होते हैं। प्रत्येक महीने में 15-15 दिनों (तिथियों) के दो पक्ष होते हैं- शुक्ल पक्ष  कृष्ण पक्ष शुक्ल पक्ष में प्रथमा से चतुर्दशी तक 14 तिथियाँ होती हैं। चतुर्दशी तिथि के पश्चात् 15वीं तिथि पूर्णिमा होती है। इसके बाद फिर प्रथमा तिथि आ जाती है। कृष्ण पक्ष का आरम्भ पूर्णिमा के बा

Hindi Kavita | हिंदी कविता : मैं तूफानों में चलने का आदी हूँ - गोपाल दास नीरज

हिंदी के सुप्रसिद्ध कवि एवं शायर गोपाल दास 'नीरज' की प्रेरणादायक हिंदी कविता 'मैं तूफानों में चलने का आदी हूँ, तुम मत मेरी मंजिल आसान करो' जो हमें विषम परिस्थितियों में भी संघर्ष करते हुए जीवन पथ पर आगे बढ़ने की प्रेरणा प्रदान करती है। मैं तूफानों में चलने का आदी हूँ, तुम मत मेरी मंजिल आसान करो! हैं फूल रोकते, काँटे मुझे चलाते, मरुस्थल, पहाड़ चलने की चाह बढ़ाते, सच कहता हूँ मुश्किलें न जब होती हैं, मेरे पग तब चलने में भी शरमाते, मेरे संग चलने लगें हवाएँ जिससे, तुम पथ के कण-कण को तूफान करो। मैं तूफानों में चलने का आदी हूँ तुम मत मेरी मंजिल आसान करो! अंगार अधर पर धर मैं मुस्काया हूँ, मैं मरघट से जिन्दगी बुला लाया हूँ, हूँ आँख-मिचौनी खेल चुका किस्मत से, सौ बार मृत्यु के गाल चूम आया हूँ, है नहीं मुझे स्वीकार दया अपनी भी, तुम मत मुझ पर कोई एहसान करो। मैं तूफानों में चलने का आदी हूँ तुम मत मेरी मंजिल आसान करो! श्रम के जल से ही राह सदा सिंचती है, गति की मशीन आँधी में ही हँसती है, शूलों से ही श्रृंगार पथिक का होता, मंजिल की माँग लहू से ही सजती ह

चंद अशआर : शेर शायरी

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शेर शायरी में आज कुछ शेर... मेरी कलम से शेर-शायरी #1 लगी है शर्त मेरी आज फिर ज़माने से। रोक सकता है मुझे कौन मुस्कुराने से।। शेर-शायरी #2 कभी दिन में तो कभी रात में आ जाता है। कभी ख़्वाहिश कभी जज़्बात में आ जाता है।। लाख समझाऊँ, करूँ कोशिशें भुलाने की। नाम उसका मेरी हर बात में आ जाता है।। शेर-शायरी #3 बेचैनी का आलम कब तक साथ चलेगा। उसका साया कब तक मेरे साथ चलेगा।। बीत गयीं जो बातें, लम्हे गुजर गए। उन लम्हों का मंज़र कब तक साथ चलेगा।। शेर-शायरी #4 ये दिल में दर्द कैसा है, क्यों आँखों में नमी सी है। मैं क्यों बेचैन रहता हूँ, मुझे किसकी कमी सी है।। किताबे दिल के पन्नों पर मोहब्बत सा है कुछ शायद। फलक पे कुछ धुआँ सा है, ज़मीं कुछ कुछ थमीं सी है।। शेर-शायरी #5 दिलो दिमाग़ पे तारी बड़ी लाचारी है। मेरी एहसास पे भारी मेरी ख़ुद्दारी है।। शेर-शायरी #6 गुलों में रंग है, रौनक़ है और ख़ुशबू है। कि ज़िन्दगी का सबब तू है और बस तू है।। बालकृष्ण द्विवेदी 'पंकज'

कविता : युग-परिवर्तन

नवोदित कवि अभिजीत 'मानस' की कविता यह कैसा नवयुग है आया कैसा परिवेश उपस्थित है जैसे रावण की नगरी में राम की सीता स्थित है बस उपभोगों की वस्तु है नारी दृष्टि में बस अबला है क्या वीर भरत का यही है भारत..? जो इतना सब कुछ बदला है अब है कहाँ लखन सा भाई जो राम सिया संग वन जाये कहाँ है रघुवर सा सामंजस्य जो जाति भीलनी फल खाए प्रेमादर्शों में परिवर्तन कथनी-करनी में अंतर आए बस स्वार्थ बचा है प्रेम शब्द में अब कौन साग विदुर घर खाए वो होली के राग वसंती क्या दीवाली के उत्सव थे प्रकृति स्वयं गाती थी कजली पुरंदर कृपा महोत्सव में वो मेरा भारत कहाँ गया जब पत्थर पूजे जाते थे सुन्दर मधुर विहग कलरव संग लता वृक्ष भी गाते थे सरिता अविरल निर्मल बहती नीर सुगंध सुधा सम था राग ललित लालित्य मनोहर घर आँगन बसती ललित कला यह जीवन अब नीरस लगता बस अभिलषित रहा उन हिस्सों को स्वयं तरसते देव वृन्द जिन दादी नानी के किस्सों को

एक मार्मिक लघुकथा- एक भूख तीन प्रतिक्रियाएँ

लघुकथा - हेमंत कुमार  शहर का एक प्रमुख पार्क।पार्क के बाहर गेट पर बैठा हुआ एक अत्यन्त बूढ़ा भिखारी। बूढ़े की हालत बहुत दयनीय थी। पतला-दुबला, फ़टे चीथड़ों में लिपटा हुआ। पिछले चार दिनों से उसके पेट में सिर्फ़ दो सूखी ब्रेड का टुकड़ा और एक कप चाय जा पायी थी। बूढ़ा सड़क पर जाने वाले हर व्यक्ति का ध्यान आकर्षित करने के लिये हाँक लगाता....“खुदा के नाम पर—एक पैसा इस गरीब को—भगवान भला करेगा”। सुबह से उसे अब तक मात्र दो रूपया मिल पाया था, जो कि शाम को पार्क का चौकीदार किराये के रूप में ले लेगा। अचानक पार्क के सामने एक रिक्शा रुका।उसमें से बॉबकट बालों वाली जीन्स टॉप से सजी एक युवती उतरी। युवती कन्धे पर कैमरा बैग भी लटकाये थी।यह शहर की एक उभरती हुयी चित्रकर्त्री थी ।इसे एक पेंटिंग के लिये अच्छे 'सब्जेक्ट' की तलाश थी। बूढ़े को कुछ आशा जगी और उसने आदतन हाँक लगा दी....भगवान के नाम पर....! युवती ने घूम कर देखा। बूढ़े पर नजर पड़ते ही उसकी आंखों में चमक सी आ गयी। वह कैमरा निकालती हुयी तेजी से बूढ़े की तरफ़ बढ़ी। बूढ़ा सतर्क होने की कोशिश में थोड़ा सा हिला। “प्लीज बाबा उसी तरह बैठे रहो हिलो डुलो म

ग़ज़ल-उस शाम वो रुखसत का समाँ याद रहेगा

उस शाम वो रुखसत का समाँ याद रहेगा। वो शहर, वो कूचा, वो मकाँ  याद रहेगा।। वो टीस कि उभरी थी इधर  याद रहेगा, वो दर्द  कि उट्ठा था उधर याद रहेगा। हाँ बज़्मे-शबाना में हमाशौक़ जो उस दिन, हम थे तेरी जानिब निगराँ याद रहेगा। कुछ 'मीर' के अबियात थे कुछ फ़ैज़ के मिसरे, इक दर्द का था जिनमें बयाँ,  याद रहेगा। हम भूल सके हैं न तुझे भूल सकेंगे, तू याद रहेगा हमें, हाँ! याद रहेगा। 'इब्ने इंशा' मायने- बज़्मे-शबाना = रात की महफ़िल हमाशौक़ = शौक़ के साथ निगराँ = दर्शक अबियात = शे'र  मिसरे = कविता की पंक्तियाँ

घाघ की कहावतें

घाघ भारत के लोक-कवि हैं जिनकी कहावतें आज भी किसानों के बीच खूब लोकप्रिय हैं। आइए पढ़ते हैं उनकी कुछ लोकप्रिय  कहावतें- प्रातकाल खटिया ते उठि कै पियै तुरतै पानी। कबहूँ घर मा बैद न अइहैं बात घाघ कै जानी।। रहै निरोगी जो कम खाय। बिगरै न काम जो गम खाय।। सावन सुक्ला सप्तमी, जो गरजै अधिरात। बरसै तो झूरा परै, नाहीं समौ सुकाल।। शुक्रवार की बादरी, रही सनीचर छाय। कहैं घाघ सुन घाघनी, बिन बरसे ना जाय।।

Hindi Kahani-उसने कहा था : हिंदी की सर्वश्रेष्ठ प्रेम कहानी

Hindi kahani उसने कहा था - चंद्रधर शर्मा 'गुलेरी' बड़े-बड़े शहरों के इक्के-गाड़ी वालों की जबान के कोड़ों से जिनकी पीठ छिल गई है और कान पक गए हैं, उनसे हमारी प्रार्थना है कि अमृतसर के बम्बू कार्ट वालों की बोली का मरहम लगावें। जबकि बड़े शहरों की चौड़ी सड़को पर घोड़े की पीठ को चाबुक से धुनते हुए इक्के वाले कभी घोड़े की नानी से अपना निकट यौन-संबंध स्थिर करते हैं, कभी उसके गुप्त गुह्य अंगो से डाक्टर को लजाने वाला परिचय दिखाते हैं, कभी राह चलते पैदलों की आँखो के न होने पर तरस खाते हैं, कभी उनके पैरो की अंगुलियों के पोरों की चींथकर अपने ही को सताया हुआ बताते हैं और संसार भर की ग्लानि और क्षोभ के अवतार बने नाक की सीध चले जाते हैं, तब अमृतसर में उनकी बिरादरी वाले तंग चक्करदार गलियों मे हर एक लडढी वाले के लिए ठहर कर सब्र का समुद्र उमड़ा कर-- बचो खालसाजी, हटो भाईजी', ठहरना भाई, आने दो लालाजी, हटो बाछा कहते हुए सफेद फेटों , खच्चरों और बतको, गन्ने और खोमचे और भारे वालों के जंगल से राह खेते हैं। क्या मजाल है कि जी और साहब बिना सुने किसी को हटना पड़े। यह बात नहीं कि उनकी जीभ च

जो बीत गई सो बात गई - harivansh rai bachchan poems in hindi

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'जो बीत गई सो बात गई' यह कविता प्र ख्यात कवि और लेखक 'हरिवंशराय बच्चन'  harivansh rai bachchan ने लिखी है, जिनका नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है। उनकी लोकप्रिय कृति 'मधुशाला' की पंक्तियाँ हर साहित्य प्रेमी की जुबान पर होती हैं। सूफी दर्शन से ओतप्रोत 'मधुशाला' एक ऐसी अनुपम कृति है जिसकी प्रसिद्धि के आयाम को २०वीं सदी के बाद की कोई दूसरी रचना अब तक नहीं प्राप्त कर पायी है। प्रस्तुत है उनकी सुंदर कविता 'जो बीत गई सो बात गई। यह कविता हमें पिछली असफलताओं पर शोक मनाने के बजाय जीवन में आगे बढ़ने और एक नयी शुरुआत करने की प्रेरणा देती है।  जो छूट गए फिर कहाँ मिले ! जो बीत गई सो बात गई ! जीवन में एक सितारा था, माना, वह बेहद प्यारा था, वह डूब गया तो डूब गया; अंबर के आनन को देखो, कितने इसके तारे टूटे, कितने इसके प्यारे छूटे, जो छूट गए फिर कहाँ मिले; पर बोलो टूटे तारों पर कब अंबर शोक मनाता है ! जो बीत गई सो बात गई ! जीवन में वह था एक कुसुम, थे उस पर नित्य निछावर तुम, वह सूख गया तो सूख गया; मधुवन की छाती को देखो,

हिंदी कविता : पुष्प की अभिलाषा- चाह नहीं मैं सुरबाला के

चाह नहीं मैं सुरबाला के गहनों में गूँथा जाऊँ। चाह नहीं प्रेमी माला में बिंध प्यारी को ललचाऊँ।। चाह नहीं सम्राटों के शव पर, हे हरि, डाला जाऊँ। चाह नहीं देवों के सिर पर चढ़ूँ, भाग्य पर इतराऊँ।। मुझे तोड़ लेना बनमाली! उस पथ पर देना तुम फेंक। मातृभूमि पर शीश चढ़ाने जिस पथ जावें वीर अनेक।।                                                'माखनलाल चतुर्वेदी'

बेहतरीन ग़ज़ल | Famous ghazal- एक पल में एक सदी का मज़ा

एक पल में एक सदी का मज़ा हमसे पूछिए। दो दिन की ज़िन्दगी का मज़ा हमसे पूछिए।। भूले हैं रफ़्ता-रफ़्ता उन्हें मुद्दतों में हम। किश्तों में ख़ुदकुशी का मज़ा हमसे पूछिए।। आगाज़-ए-आशिक़ी का मज़ा आप जानिए। अंजाम-ए-आशिक़ी का मजा हमसे पूछिए।। जलते दियों में जलते घरों जैसी लौ कहाँ। सरकार-ए-रोशनी का मज़ा हमसे पूछिए।। वो जान ही गए कि हमें उनसे प्यार है। आँखों की मुखबिरी का मज़ा हमसे पूछिए।। हँसने का शौक हमको भी था आपकी तरह। हँसिए मगर हँसी का मज़ा हमसे पूछिए।।                                                'ख़ुमार बाराबंकवी'