जब तुम्हारा दुपट्टा सरकता था..
"तूने मेरी मोहब्बत की गहराइयों को समझा ही नहीं सनम ! तेरे बदन से जब दुपट्टा सरकता था, हम नज़रें झुका लेते थे !!" यूँ ही कहीं कुछ पढ़ रहा था और नज़र पड़ गयी इन पंक्तियों पर। प्रथमदृष्टया कोई भी इसे उस सस्ती शेरो-शायरी की श्रेणी में रख सकता है जो ट्रैक्टर की ट्रॉलियों से लेकर बड़े-बड़े ट्रकों के आगे-पीछे अक्सर लिखी मिल जाती हैं या चाट-पकौड़ी के ठेले या फिर किसी आशिक़ मिज़ाज नाई की दुकान के किसी कोने में लगी नेहा धूपिया टाइप हिरोइन के अर्धनग्न चित्र के साथ छपी हुई। लेकिन इन पंक्तियों को ज़रा ग़ौर से पढ़ेंगे तो आपको ज़रूर एहसास होगा कि ये वास्तव में कुछ तो अलग हैं। भले ही ये पंक्तियाँ काव्यशास्त्रीय दृष्टि से उस सौष्ठव को न प्राप्त हों किन्तु इसकी जो भाव-भूमि है उस तक आजकल के हनी सिंह टाइप लौंडे तो पहुँच ही नहीं सकते। खैर, हम आगे बढ़ते हैं और बात करते हैं आज के सोशल मीडिया के ज़माने की; जहाँ हर कोई अपने आपको खुसरो, ज़ौक़, मीर, ग़ालिब और दुष्यंत कुमार समझता है; जहाँ पहली पंक्ति का तुक दूसरी पंक्ति से मिल जाना ही शायरी मानी जाती है और जहाँ कॉपी-पेस्ट की कला सीख लेना ही शायर बन