ग़ज़ल - मेरा प्यार भी अजीब था | Ghazal
गजल - मेरा प्यार भी अजीब था ये जो इश्क है, वो जूनून है, वो जो न मिला वो नसीब था। वो पास हो के भी दूर था, या दूर हो के करीब था ।। मेरे हौसले का मुरीद बन या दे मुझे तू अब सजा। तू ही दर्श था, तू ही ख्वाब था, तू ही तो मेरा हबीब था।। उस शहर की है ये दास्ताँ, जहाँ बस हमी थे दरमियाँ। न थी दुआ, न थी मेहर, न तो दोस्त था न रकीब था।। करता रहा दिल को फ़ना, जिसे लोग कहते थे गुनाह। एक अजनबी पे था आशना, मेरा प्यार भी अजीब था।। 'अज्ञात'